चाणक्य नीति अध्याय 16 | चाणक्य के 20 बुद्धिमान बनाने वाले विचार > चतुराई और बुद्धिमानी के बेताज बादशाह आचार्य पंडित चाणक्य के विचार हम लाये हैं अपने आर्टिकल के माध्यम से आपके द्वार, इन्हें पढ़ने से जो करेगा इंकार, उनके जीवन में भला कैसे आएंगे बहार। इसलिए बने रहियेगा हमारे साथ क्योंकि आज होगी सिर्फ और सिर्फ चतुराई और बुद्धिमानी की बात।
चाणक्य नीति अध्याय 16
विचार : 1 >
आचार्य चाणक्य कहते हैं कि, संसार से मुक्ति पाने के लिए न तो हमने परमात्मा के चरणों का ध्यान किया, न स्वर्ग-द्वार को पाने के लिए धर्म का संचय किया और न कभी स्वप्न में भी स्त्री के कठोर स्तनों का आलिंगन किया। इस प्रकार हमने जन्म लेकर माँ के यौवन को नष्ट करने के लिए कुल्हाड़ी का ही काम किया।
विचार : 2 >
आचार्य जी स्त्रियों के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि, स्त्रियां बात एक से करती हैं, कटाक्ष से दूसरे को देखती हैं और मन में तीसरे को चाहती हैं। उनका प्रेम किसी एक से नहीं होता।
विचार : 3 >
चाणक्य का कहना है कि, जो मूर्ख पुरुष मोहवश यह समझता है यह कामिनी मुझ पर अनुरक्त हो गयी है, वह उसी के वश में होकर खिलौने की चिड़िया के समान नाचने लगता है।
विचार : 4 >
चाणक्य कहते हैं कि, कौन ऐसा व्यक्ति है, जिसे धन पाने पर गर्व न हुआ हो ? किस विषयी व्यक्ति के दुःख समाप्त हुए ? स्त्रियों ने किसके मन को खंडित नहीं किया ? कौन व्यक्ति राजा का प्रिय बन सका ? काल की दृष्टि किस पर नहीं पड़ीं ? किस भिखारी को सम्मान मिला ? कौन ऐसा व्यक्ति है जो दुष्टों की दुष्टता में फंसकर सकुशल लौटकर वापिस आ सका ? ये सभी बातें विचार करने योग्य हैं।
विचार : 5 >
चाणक्य पंडित कहते हैं कि, सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायीं, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने की भी होती है। फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिए, वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है।
विचार : 6 >
पंडित जी का कहना है कि, गुणों से ही मनुष्य बड़ा बनता है, न कि किसी ऊँचें स्थान पर बैठ जाने से। राजमहल के शिखर पर बैठ जाने पर भी कौवा गरुण नहीं बनता।
विचार : 7 >
आचार्य चाणक्य गुणों के प्रति पूजा भाव की दृष्टि से कहते हैं कि गुण ही सर्वत्र पूजे जाते हैं, धन अत्यधिक होने पर भी सब जगह नहीं पूजा जाता। क्या पूर्ण चंद्र की संसार में वही वंदना होती है, जैसे क्षीण चन्द्रमा की होती है।
चाणक्य नीति अध्याय 16
विचार : 8 >
चाणक्य नीति कहती है कि, व्यक्ति को स्वयं अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिए। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने पर स्वर्ग के देवता इंद्रा की भी इज़्ज़त घट जाती है, औरों का तो कहना ही क्या ! सच्चा गुणी व्यक्ति वही है, जिसकी प्रशंसा और लोग करते हैं।
विचार : 9 >
चाणक्य नीति में यह भी लिखा है कि, गुण भी योग्य, विवेकशील व्यक्ति के पास जाकर ही सुन्दर लगता है, क्योंकि सोने में जड़े जाने पर ही रत्न भी सुन्दर लगता है।
विचार : 10 >
पंडित जी कहते हैं कि, गुणी व्यक्ति भी उचित आश्रय नहीं मिलने पर दुःखी हो जाता है, क्योंकि निर्दोष मणि को भी आश्रय की आवश्यकता होती है।
विचार : 11 >
आचार्य जी कहते हैं कि, जो धन किसी को दुःखी करके प्राप्त हो, जो चोरी, तस्करी, काला बाजारी आदि अवैध तरीकों से कमाया जाता हो या देश के शत्रुओं से अर्थात देशद्रोही तरीकों से मिलता हो ऐसा धन लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए।
विचार : 12 >
आचार्य जी का कथन है कि, वधु के समान घर के अंदर बंद रहने वाली लक्ष्मी क्या काम आती है और जिस लक्ष्मी का वेश्या के समान सभी भोग करते हैं, ऐसी लक्ष्मी भी किस काम की ? अर्थात धन का सदुपयोग होना चाहिए दुरूपयोग नहीं।
विचार : 13 >
आचार्य के अनुसार, सभी प्राणी, धन, जीवन, स्त्री तथा भोजन से सदा अतृप्त रहकर संसार से चले गए, जा रहे हैं और चले जायेंगे।
विचार : 14 >
पंडित जी ने कहा है कि, सभी यज्ञ, दान, बलि आदि नष्ट हो जाते हैं, किन्तु पात्र को दिया गया दान तथा अभयदान का फल नष्ट नहीं होता।
चाणक्य नीति अध्याय 16
विचार : 15 >
चाणक्य कहते हैं कि, तिनका हल्का होता है, तिनके से हल्की रुई होती है और याचक रुई से भी हल्का होता है। तब इसे वायु उड़ाकर क्यों नहीं ले जाती ? इसलिए कि वायु सोचती है कि कहीं यह मुझसे भी कुछ ना माँग बैठे।
विचार : 16 >
आचार्य जी कहते हैं कि, समाज में, सगे-सम्बन्धियों के बीच गरीबी में जीना अच्छा नहीं है। इससे अच्छा है कि व्यक्ति भयंकर शेरों, बाघों, हाथियोंवाले वन में चला जाए और वहाँ किसी वृक्ष के नीचे घास-फूस पर सोये, जंगली फल खाएं, वहीं का पानी पीये और पेड़ की छाल के कपड़े पहनें। अर्थात निर्धन होकर समाज में जीने से वनवास अच्छा है।
विचार : 17 >
चाणक्य नीति के अनुसार, प्रिय मधुर वाणी बोलने से सभी मनुष्य संतुष्ट हो जाते हैं। अतः मधुर ही बोलना चाहिए। वचनों का गरीब कोई नहीं होता।
विचार : 18 >
पंडित चाणक्य कहते हैं कि, इस संसार रूपी वृक्ष के अमृत के समान दो फल हैं – सुन्दर बोलना तथा सज्जनों की संगति करना।
विचार : 19 >
आचार्य जी कहते हैं कि, जन्म-जन्म तक अभ्यास करने पर ही मनुष्य को दान, अध्ययन और तप प्राप्त होते हैं। इसी अभ्यास से प्राणी बार-बार इन्हें करता है।
विचार : 20 >
आचार्य चाणक्य ने कहा है कि, अपने को याद विद्या तथा अपने हाथ का धन ही समय पर काम आते हैं। क्योकि कर्ज में दिया गया धन और पुस्तकों में लिखी विद्या एकाएक काम पड़ जाने पर साथ नहीं देते।
आशा करता हूँ कि आचार्य चाणक्य की ये बातें आपके ज्ञान के भंडार में कुछ वृद्धि अवश्य करेंगी और भविष्य में आपके काम आएंगी और आपको सामान्य बेहतर बनाएंगी। तो सोच क्या रहे हैं ? इसे अपने दोस्तों के साथ सोशल मीडिया पर Share करें, Like करें, Comment करें।
धन्यवाद | आपकी अतिकृपा होगी
आपका दोस्त / शुभचिंतक : अमित दुबे ए मोटिवेशनल स्पीकर Founder & CEO motivemantra.com