दोस्तों, गीता अध्याय-७ (ज्ञान विज्ञान योग) के अंत में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि- हे धनञ्जय, जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान को जान और समझ सकते है, और अब इससे आगे बढ़ते हुए गीता अध्याय-८ अक्षर ब्रह्मं योग || Operation Gita में श्री कृष्ण क्या कहते हैं आइये जानते हैं।
गीता अध्याय-८ अक्षर ब्रह्मं योग || Operation Gita
अर्जुन उवाच
अध्याय-८ श्लोक=१
किं तद्ब्रह्म किमध्यात्मं किं कर्म पुरुषोत्तम।
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किमुच्यते।।
भावार्थ
अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा – हे भगवान, हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है ? आत्मा क्या है ? सकाम कर्म क्या है ? यह भौतिक जगत क्या है ? तथा देवता क्या हैं ? कृपा करके यह सब मुझे बताइये।
अध्याय-८ श्लोक=२
अधियज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽस्मिन्मधुसूदन।
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽसि नियतात्मभिः।।
भावार्थ
हे मधुसूदन, यज्ञ का स्वामी कौन है ? और वह शरीर में कैसे रहता है ? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं।
श्री भगवानुवाच
अध्याय-८ श्लोक=३
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावऽध्यात्ममुच्यते।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः।।
भावार्थ
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन, अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है, जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।
अध्याय-८ श्लोक=४
अधिभूतं क्षरो भावः पुरूषश्चाधिदैवतम्।
अधियज्ञो।हमेवात्र देहे देहभृतां वर।।
भावार्थ
हे देहधारियों में श्रेष्ठ, निरंतर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अभिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है, भगवान का विराट रूप, जिसमे सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है, तथा प्रत्येक देहधारी के ह्रदय में परमात्मा स्वरुप स्थित में परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ क स्वामी) कहलाता हूँ।
अध्याय-८ श्लोक=५
अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।।
भावार्थ
हे पार्थ, और जीवन के अंत में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
अध्याय-८ श्लोक=६
यं यं वापि स्मरंभावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ।।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र, शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस-उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
अध्याय-८ श्लोक=७
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्ममेवैष्यस्यसंशयः।।
भावार्थ
अतएव हे अर्जुन, तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिंतन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्त्तव्य को भी पूरा करना चाहिए, अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमे स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।
अध्याय-८ श्लोक=८
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।
भावार्थ
हे पार्थ, जो व्यक्ति मेरा स्मरण करने में अपना मन निरंतर लगाए रखकर अविचलित भाव से भगवान के रूप में मेरा ध्यान करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है।
अध्याय-८ श्लोक=९
कविं पुराणमनुशासितारमणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूपमादित्यवर्ण तमसः परस्तात्।।
भावार्थ
हे धनञ्जय, मनुष्य को चाहिये कि परमपुरुष का ध्यान सर्वज्ञ, पुरातन, नियंता, लघुत्तम से भी लघुत्तर, प्रत्येक का पालनकर्ता, समस्त भौतिक बुद्धि से परे, अचिन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे, वे सूर्य की भांति तेजवान है और इस भौतिक प्रकृति से परे, दिव्य रूप है।
अध्याय-८ श्लोक=१०
प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्।।
भावार्थ
हे पाण्डुपुत्र, मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योग शक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगता है, वह निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त होता है।
अध्याय-८ श्लोक=११
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये।।
भावार्थ
हे अर्जुन, जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो सन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि है, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं, ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं, अब मै तुम्हें वह विधि बताऊंगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति लाभ कर सकता है।
अध्याय-८ श्लोक=१२
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, समस्त इन्द्रिय क्रियायों से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है, इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बंद करके तथा मन को ह्रदय में और प्राणवायु को सिर पर केंद्रित करके मनुष्य अपने को स्थापित करता है।
अध्याय-८ श्लोक=१३
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्ममनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।
भावार्थ
हे धनञ्जय, इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान का चिंतन करता है और शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है।
अध्याय-८ श्लोक=१४
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, जो अनन्य भाव से निरंतर मेरा स्मरण करता है लिए मै सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।
अध्याय-८ श्लोक=१५
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालेमशाश्वतम्।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः।।
भावार्थ
हे पार्थ, मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है।
अध्याय-८ श्लोक=१६
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुनः।
मामुपेत्य तू कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।
भावार्थ
हे अर्जुन, इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है। किन्तु हे कुन्तीपुत्र, जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता।
अध्याय-८ श्लोक=१७
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद्ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगस्रहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।
अध्याय-८ श्लोक=१८
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रान्न्यागमे प्रलीयन्ते तन्नैवाव्यक्तसंज्ञके।।
भावार्थ
हे पृथापुत्र, ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते है।
अध्याय-८ श्लोक=१९
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रान्न्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।
भावार्थ
हे महाबाहो, जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।
अध्याय-८ श्लोक=२०
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातनः
यः स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति।।
भावार्थ
हे अर्जुन, इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे हैं, यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है, जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।
अध्याय-८ श्लोक=२१
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते सद्धाम परमं मम।।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र, जिसे वेदांती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं, जो परम गंतव्य है, जिसे प्राप्त कर कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परम धाम है।
अध्याय-८ श्लोक=२२
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, भगवान जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं, यद्यपि वे अपने-आप में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है।
अध्याय-८ श्लोक=२३
यत्र काले तनावृत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ।।
भावार्थ
हे भरतश्रेष्ठ, अब मै तुम्हें विभिन्न कालों को बताऊंगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता।
अध्याय-८ श्लोक=२४
अग्निर्ज्योतिरह शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्।
तन्न प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छः मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते। हैं
अध्याय-८ श्लोक=२५
धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम्।
तन्न चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते।।
भावार्थ
हे पार्थ, जो योगी धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चंद्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुनः (पृथ्वी) पर चला आता है।
अध्याय-८ श्लोक=२६
शुक्लकृष्णे गति ह्येते जगतः शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुनः ।।
भावार्थ
हे अर्जुन, वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग है – एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का, जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस आता, किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुनः लौटकर आता है।
अध्याय-८ श्लोक=२७
नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।
भावार्थ
हे अर्जुन, यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते, अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो।
अध्याय-८ श्लोक=२८
वेदेषु यज्ञेषु तपः सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैती चाद्यम्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह देवाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता, वह मात्र भक्ति संपन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञान अक्षर ब्रह्मं योगो नाम अष्टमोध्यायः समाप्त।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में अक्षर ब्रह्मं योग नाम का आठवां अध्याय सम्पूर्ण हुआ।
।। हरिः ॐ तत् सत्।।
गीता अध्याय-८ अक्षर ब्रह्मं योग || Operation Gita
सारांश
दोस्तों, गीता के आठवें अध्याय का नाम अक्षर ब्रह्मं योग है जिसका विस्तार उपनिषदों में हुआ है, गीता के इस अध्याय में अक्षर विद्या का सार कहा गया है-अक्षर ब्रह्म परमं का मतलब परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य और उसके शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है।
जीव संयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है, देह के अंदर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं, गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है।
जब कुन्तीपुत्र अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं कि – हे भगवान, हे पुरुषोत्तम, ब्रह्म क्या है ? आत्मा क्या है ? सकाम कर्म क्या है ? यह भौतिक जगत क्या है ? तथा देवता क्या हैं ? कृपा करके यह सब मुझे बताइये, हे मधुसूदन, यज्ञ का स्वामी कौन है ? और वह शरीर में कैसे रहता है ? और मृत्यु के समय भक्ति में लगे रहने वाले आपको कैसे जान पाते हैं।
इस पर भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि – हे अर्जुन, अविनाशी और दिव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म या आत्म कहलाता है, जीवों के भौतिक शरीर से सम्बंधित गतिविधि कर्म या सकाम कर्म कहलाती है।
हे देहधारियों में श्रेष्ठ, निरंतर परिवर्तनशील यह भौतिक प्रकृति अभिभूत (भौतिक अभिव्यक्ति) कहलाती है, भगवान का विराट रूप, जिसमे सूर्य तथा चंद्र जैसे समस्त देवता सम्मिलित हैं, अधिदैव कहलाता है, तथा प्रत्येक देहधारी के ह्रदय में परमात्मा स्वरुप स्थित में परमेश्वर अधियज्ञ (यज्ञ का स्वामी) कहलाता हूँ।
हे पार्थ, और जीवन के अंत में जो केवल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरंत मेरे स्वभाव को प्राप्त करता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। हे कुन्तीपुत्र, शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस-जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस-उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त होता है।
अतएव हे अर्जुन, तुम्हें सदैव कृष्ण रूप में मेरा चिंतन करना चाहिए और साथ ही युद्ध करने के कर्त्तव्य को भी पूरा करना चाहिए, अपने कर्मों को मुझे समर्पित करके तथा अपने मन एवं बुद्धि को मुझमे स्थिर करके तुम निश्चित रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे।
हे पाण्डुपुत्र, मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योग शक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्वर के स्मरण में अपने को लगता है, वह निश्चित रूप से भगवान को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन, जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओंकार का उच्चारण करते हैं और जो सन्यास आश्रम के बड़े-बड़े मुनि है, वे ब्रह्म में प्रवेश करते हैं, ऐसी सिद्धि की इच्छा करने वाले ब्रह्मचर्यव्रत का अभ्यास करते हैं, अब मै तुम्हें वह विधि बताऊंगा, जिससे कोई भी व्यक्ति मुक्ति लाभ कर सकता है।
हे अर्जुन, समस्त इन्द्रिय क्रियायों से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है, इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बंद करके तथा मन को ह्रदय में और प्राणवायु को सिर पर केंद्रित करके मनुष्य अपने को स्थापित करता है।
हे धनञ्जय, इस योगाभ्यास में स्थित होकर तथा अक्षरों के परम संयोग यानी ओंकार का उच्चारण करते हुए यदि कोई भगवान का चिंतन करता है और शरीर का त्याग करता है, तो वह निश्चित रूप से आध्यात्मिक लोकों को जाता है, हे अर्जुन, जो अनन्य भाव से निरंतर मेरा स्मरण करता है उसके लिए मै सुलभ हूँ, क्योंकि वह मेरी भक्ति में प्रवृत्त रहता है।
हे पार्थ, मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भक्तियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूर्ण इस अनित्य जगत में नहीं लौटते, क्योंकि उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हो चुकी होती है। हे अर्जुन, इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाँ जन्म तथा मरण का चक्कर लगा रहता है।
किन्तु हे कुन्तीपुत्र, जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह फिर कभी जन्म नहीं लेता है। हे अर्जुन, मानवीय गणना के अनुसार एक हजार युग मिलकर ब्रह्मा का एक दिन बनता है और इतनी ही बड़ी ब्रह्मा की रात्रि भी होती है।
हे पृथापुत्र, ब्रह्मा के दिन के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यक्त अवस्था से व्यक्त होते हैं और फिर जब रात्रि आती है तो वे पुनः अव्यक्त में विलीन हो जाते है।हे महाबाहो, जब-जब ब्रह्मा का दिन आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि होते ही वे असहायवत विलीन हो जाते हैं।
हे अर्जुन, इसके अतिरिक्त एक अन्य अव्यक्त प्रकृति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे हैं, यह परा (श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है, जब इससंसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता है, हे कुन्तीपुत्र, जिसे वेदांती अप्रकट तथा अविनाशी बताते हैं, जो परम गंतव्य है, जिसे प्राप्त कर कर लेने पर कोई वापस नहीं आता, वही मेरा परम धाम है।
हे अर्जुन, भगवान जो सबसे महान हैं, अनन्य भक्ति द्वारा ही प्राप्त किये जा सकते हैं, यद्यपि वे अपने-आप में विराजमान रहते हैं, तो भी वे सर्वव्यापी हैं और उनमें सब कुछ स्थित है। हे भरतश्रेष्ठ, अब मै तुम्हें विभिन्न कालों को बताऊंगा, जिनमें इस संसार से प्रयाण करने के बाद योगी पुनः आता है अथवा नहीं आता।
हे अर्जुन, जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अग्निदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, दिन के शुभक्षण में, शुक्लपक्ष में या जब सूर्य उत्तरायण में रहता है, उन छः मासों में इस संसार से शरीर त्याग करने पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते। हैं
हे पार्थ, जो योगी धुएं, रात्रि, कृष्णपक्ष में या सूर्य के दक्षिणायन रहने के छह महीनों में दिवंगत होता है, वह चंद्रलोक को जाता है, किन्तु वहाँ से पुनः (पृथ्वी) पर चला आता है।हे अर्जुन, वैदिक मतानुसार इस संसार से प्रयाण करने के दो मार्ग है – एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार का, जब मनुष्य प्रकाश के मार्ग से जाता है तो वह वापस आता, किन्तु अंधकार के मार्ग से जाने वाला पुनः लौटकर आता है।
हे अर्जुन, यद्यपि भक्तगण इन दोनों मार्गों को जानते हैं, किन्तु वे मोहग्रस्त नहीं होते, अतः तुम भक्ति में सदैव स्थिर रहो, हे अर्जुन, जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह देवाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता, वह मात्र भक्ति संपन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।
दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-८ अक्षर ब्रह्मं योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, किसी नए टॉपिक के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत
लेखक परिचय
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