पहले अध्याय में हमने जाना कि कैसे अर्जुन ने अपने सगे-सम्बन्धियों के मायाजाल का हवाला देकर युद्ध करने से मना कर दिया अब हम दूसरे अध्याय में > गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण) के बारे में जानेंगे, तो आइये अब शुरू करते हैं।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
संजय उवाच
अध्याय-२ = श्लोक-१
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः।।
भावार्थ
संजय ने कहा – इस प्रकार करुणा से अभिभूत, आँसुओं से भरे हुए व्याकुल नेत्रों वाले, शोकग्रस्त अर्जुन को देखकर मधुसूदन श्री कृष्ण ने यह शब्द कहे।
श्री भगवानुवाच
अध्याय-२ = श्लोक-२
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्ट मस्वर्ग्यमकीर्तिकरमअर्जुन।।
भावार्थ
श्री भगवन ने कहा – हे अर्जुन, इस प्रतिकूल परिस्थिति में तेरे अंदर यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ, न तो इसका जीवन के मूल्यों को जानने वाले मनुष्यों द्वारा आचरण किया गया है, और न ही इससे स्वर्ग की और न ही यश की प्राप्ति होती है।
अध्याय-२ = श्लोक-३
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं ह्रदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोतिष्ठ परंतप।।
भावार्थ
इसलिए हे अर्जुन, तू नपुंसकता को प्राप्त मत हो, यह तुझे शोभा नहीं देता है, हे शत्रुओं के दमनकर्ता तू अपने ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध करने के लिए खड़ा हो।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अर्जुन उवाच
अध्याय-२ = श्लोक-४
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन।।
भावार्थ
अर्जुन ने कहा – हे मधुसूदन, हे शत्रुहन्ता, मै युद्धभूमि में भीष्मपितामह और गुरु द्रोणाचार्य पर कैसे बाण चलाऊँगा ?
अध्याय-२ = श्लोक-५
गुरूनहत्वा हि महानुभावा-ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिर प्रदिग्धान्।।
भावार्थ
ऐसे महापुरुषों को जो कि मेरे गुरु हैं, इन्हें मारकर जीने की अपेक्षा मै इस संसार में भिक्षा माँगकर खाना ज्यादा श्रेयस्कर समझता हूँ, क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी तो इस संसार में खून से सने हुए सुख रूप भोग ही तो भोगने को मिलेंगे।
अध्याय-२ = श्लोक-६
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयोयद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम -स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।
भावार्थ
हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए श्रेष्ठ है या युद्ध न करना, और यह भी नहीं जानते कि हम जीतेंगे या वे ही जीतेंगे, धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करके हम जीना भी नहीं चाहते फिर भी वे हमारे सामने युद्धभूमि में खड़े हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-७
कार्पण्यदोषो पहतस्वभावः पृच्छामित्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यतेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
भावार्थ
कृपण एवं दुर्बल स्वभाव के कारण अपने कर्त्तव्य के विषय में मोहित हुआ मै आपसे पूछता हूँ कि वह साधन जो मेरे लिए श्रेयस्कर हो उसे निश्चित करके कहिये, मै आपका शिष्य हूँ, मै आपका शरणागत हूँ, कृपया मुझे उपदेश दीजिये।
अध्याय-२ = श्लोक-८
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-द्यच्छोकमुच्छो षड़मिंद्रियाणाम्।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं-राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्।।
भावार्थ
मुझे ऐसा कोई साधन नहीं दिखता है, जो मेरी इन्द्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर कर सके, स्वर्ग में धन-धान्य संपन्न देवताओं सर्वोच्च इंद्र-पद और पृथ्वी पर निष्कंटक राज्य को प्राप्त करके भी मै उस उपाय को नहीं देखता हूँ।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
संजय उवाच
अध्याय-२ = श्लोक-९
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तपः।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।
भावार्थ
संजय ने कहा – हे राजन, निद्रा को जितने वाले अर्जुन ने इन्द्रियों के स्वामी श्री कृष्ण से कहा, हे गोविन्द मै युद्ध नहीं करूँगा और चुप हो गए।
अध्याय-२ = श्लोक-१०
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरूभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः।।
भावार्थ
हे भारतवंशी, इस समय दोनों सेनाओं के बीच शोक-ग्रस्त अर्जुन से इन्द्रियों के स्वामी श्री कृष्ण ने हँसते हुए ये शब्द कहे।
श्री भगवानुवाच
अध्याय-२ = श्लोक-११
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः।।
भावार्थ
श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन, तू उनके लिए शोक करता है जो शोक करने योग्य नहीं हैं और पंडितों की तरह बातें करता है। जो विद्वान होते हैं, वे न तो जीवित प्राणी के लिए और न ही मृत प्राणी के लिए शोक करते हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-१२
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।
भावार्थ
ऐसा कभी भी नहीं हुआ है कि मै किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था अथवा ये समस्त राजा नहीं थे, और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे।
अध्याय-२ = श्लोक-१3
देहिनो स्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तस्त्र न मुह्यति।।
भावार्थ
जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से युवावस्था को निरंतर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, ऐसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-१४
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
अगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत।।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र, सुख-दुःख को देने वाले विषयों के क्षणिक संयोग तो केवल इन्द्रिय-बोध से उत्पन्न होने वाले सर्दी तथा गर्मी की ऋतुओं के समान आने-जाने वाले हैं, इसलिए हे भारतवंशी, तू अविचल भाव से उनको सहन करने का प्रयत्न कर।
अध्याय-२ = श्लोक-१५
यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते।।
भावार्थ
हे पुरुषश्रेष्ठ, मनुष्य सुख तथा दुःख में कभी विचलित नहीं होता है, दोनों ही परिस्थितियों में सम-भाव रखता है, ऐसा धीर पुरुष निश्चित ही मुक्ति के योग्य होता है।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-१६
नसतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः।।
भावार्थ
तत्वदर्शियों के द्वारा निष्कर्ष निकलकर देखा गया है कि असत् वस्तु (शरीर) का कोई अस्तित्व नहीं होता, और सत् वस्तु (आत्मा) में कोई परिवर्तन नहीं होता है।
अध्याय-२ = श्लोक-१७
अविनाशि तू तद्विद्धि येन सर्वमिदं तमम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।
भावार्थ
जो सभी शरीरों में व्याप्त है उस तू अविनाशी समझ, इसको नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-१८
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।
भावार्थ
अविनाशी, अमाप, नित्य-स्वरुप आत्मा के ये सब शरीर नष्ट होने वाले हैं, अतः हे भारतवंशी, तू युद्ध कर।
अध्याय-२ = श्लोक-१९
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।
भावार्थ
जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा हुआ समझता है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं, क्योंकि यह आत्मा वास्तव में ना ही किसी को मारता है और ना ही किसी के द्वारा मारा जाता है।
अध्याय-२ = श्लोक-२०
न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणों-न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
भावार्थ
यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्म लेता है और न ही मरता है, और न ही जन्म लेगा, अजन्मा, नित्य स्वाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता है।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-२१
वेदविनाशीनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्।।
भावार्थ
हे पृथापुत्र, जो मनुष्य इस आत्मा को अविनाशी, शाश्वत, अजन्मा और अव्यय जानता है, वह मनुष्य किसी को कैसे मार सकता है या किसी के द्वारा कैसे मारा जा सकता है।
अध्याय-२ = श्लोक-२२
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देहि।।
भावार्थ
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर दूसरे नए वस्त्रों को धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुराने तथा व्यर्थ के शरीरों को त्यागकर नये शरीरों को धारण करता है।
अध्याय-२ = श्लोक-२३
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
भावार्थ
यह आत्मा न तो शस्त्र द्वारा काटा जा सकता है, न ही आग के द्वारा जलाया जा सकता है, न ही जल द्वारा भिगोया जा सकता है और न ही वायु द्वारा सुखाया जा सकता है।
अध्याय-२ = श्लोक-२४
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।
भावार्थ
यह आत्मा न तो तोड़ा जा सकता है, न जलाया जा सकता है, न ही इसे घुलाया जा सकता है, और न ही इसे सुखाया जा सकता है, यह आत्मा शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी, स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है।
अध्याय-२ = श्लोक-२५
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।
भावार्थ
यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय कहा जाता है, इस प्रकार आत्मा को अच्छी तरह जानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-२६
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।
भावार्थ
हे महाबाहु, यदि तू इस आत्मा को सदा जन्म लेने वाला तथा सदा मरने वाला मानता है, तो भी तू इस प्रकार शोक करने के योग्य नहीं है।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-२७
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।
भावार्थ
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म निश्चित है, अतः इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-२८
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।
भावार्थ
हे भारतवंशी, सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट रहते हैं और मरने के बाद भी अदृश्य हो जाने वाले हैं, केवल बीच में ही इन्हें देखा जा सकता है, अतः शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-२९
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।
भावार्थ
कोई इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है, कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है, तथा कोई इसे आश्चर्य की तरह सुनता है, और कोई-कोई तो इसके विषय में सुनकर भी कुछ नहीं समझ पाता है।
अध्याय-२ = श्लोक-३०
देहि नित्यमवध्योऽयंदेहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि।।
भावार्थ
हे भारतवंशी, इस आत्मा का शरीर में कभी वध नहीं किया जा सकता है, अतः तुझे किसी भी प्राणी के लिए शोक करने की आवश्यकता नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-31
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते।।
भावार्थ
हे अर्जुन, क्षत्रिय होने के नाते अपने धर्म का विचार करके भी तू संकोच करने योग्य नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्म के लिए युद्ध करने के अलावा अन्य कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-३२
यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लम्भते युद्धमीदृशम्।।
भावार्थ
हे पार्थ, वे क्षत्रिय भाग्यवान है जिसे ऐसे युद्ध के अवसर अपने आप प्राप्त होते हैं जिससे उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-३३
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।
भावार्थ
किन्तु यदि तू इस धर्म के लिए युद्ध नहीं करेगा तो अपनी कीर्ति को खोकर कर्त्तव्य-कर्म की उपेक्षा करने पर पाप को प्राप्त होगा।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-३४
अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्।
संभावितस्य चाकीर्ति र्मरणादतिरिच्यते।।
भावार्थ
लोग सदैव तेरी बहुत समय तक रहने वाली अपकीर्ति का भी वर्णन करेंगे और सम्मानित मनुष्य के लिए अपकीर्ति मृत्यु से भी बढ़कर है।
अध्याय-२ = श्लोक-३५
भयाद्रणादुपरतं मस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतोभूत्वा यास्यसि लाघवम्।।
भावार्थ
जिन-जिन योद्धाओं की दृस्टि में तू पहले सम्मानित हुआ है, वे महारथी लोग तुझे डर के कारण युद्ध-भूमि से हटा हुआ समझकर तुझे तुच्छ मानेंगे।
अध्याय-२ = श्लोक-३६
अवाच्यवादांश्च बहुन् वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततोदुःखतरं नु किम्।।
भावार्थ
तेरे शत्रु तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए तुझे बहुत से कटु वचन भी कहेंगे, तेरे लिए इससे अधिक दुःखदायी और क्या हो सकता है।
अध्याय-२ = श्लोक-३७
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।
भावार्थ
हे कुन्तीपुत्र, यदि तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग को प्राप्त करेगा और यदि तू युद्ध जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, अतः तू दृढ़-संकल्प करके खड़ा हो जा और युद्ध कर।
अध्याय-२ = श्लोक-३८
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जजाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।
भावार्थ
सुख या दुःख, हानि या लाभ और विजय या पराजय का विचार त्यागकर युद्ध करने के लिए ही युद्ध कर, ऐसा करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-३९
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्दया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।
भावार्थ
हे पृथापुत्र, यह बुध्दि तेरे लिए सांख्य योग के विषय में कही गई और अब तू इसको निष्काम कर्म योग के विषय में सुन, जिससे तू इस बुध्दि से कर्म करेगा तो तू कर्मो के बंधन से अपने आप को मुक्त कर सकेगा।
अध्याय-२ = श्लोक-४०
यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।
भावार्थ
इस प्रकार कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और नहीं फल रूप दोष लगता है, अपितु इस निष्काम कर्म योग की थोड़ी सी भी जन्म मृत्यु के महान भय से रक्षा करती है।
अध्याय-२ = श्लोक-४१
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाका ह्वानन्ताश्च बुद्दयोऽव्यवसायिनाम्।।
भावार्थ
हे कुरुनन्दन, इस निष्काम कर्म योग में दृढ़ प्रतिज्ञ बुध्दि एक ही होती है, किन्तु जो दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं है उनकी बुध्दि अनंत शाखाओं में विभक्त रहती है।
अध्याय-२ = श्लोक-४२-४३
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्चर्यगतिं प्रति।।
भावार्थ
हे पृथापुत्र, अल्पज्ञानी मनुष्य वेदों के उन अलंकारिक शब्दों के प्रति अत्यधिक आसक्त रहते हैं, जो स्वर्ग की प्राप्ति, उत्तम जन्म तथा ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति के लिए अनेक सकाम कर्म फल की विविध क्रियायों का वर्णन करते हैं, इन्द्रिय तृप्ति और ऐश्वर्यमय जीवन की कामना के कारण वे कहते हैं कि इससे बढ़कर और कुछ नहीं है।
अध्याय-२ = श्लोक-४४
भोगैश्चर्यप्रसक्तानां तयापह्वतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुध्दिः समाधौ न विधीयते।।
भावार्थ
जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऐश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऐसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति ढृढ़संकल्पित बुध्दि नही होती है।
अध्याय-२ = श्लोक-४५
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्गोयक्षेम आत्मवान्।।
भावार्थ
हे अर्जुन, वेदों में मुख्य रूप से प्रकृति के तीनो गुणों का वर्णन हुआ है, इसलिए तू इन तीनों गुणों से ऊपर उठ हर्ष, शोक आदि द्वंदों से रहित तथा सुरक्षा की सारी चिंताओं से मुक्त आत्म परायण बन।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-४६
यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः।।
भावार्थ
सभी तरह से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर छोटे जलाशय के प्रति मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है, ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का समस्त वेदों से उतना ही प्रयोजन रहता है।
अध्याय-२ = श्लोक-४७
कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन।
माकर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।।
भावार्थ
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में अधिकार नहीं है, इसलिए तू न तो अपने-आप को कर्मों के फलों का कारण समझ और कर्म न करने में तेरी आसक्ति भी न हो।
अध्याय-२ = श्लोक-४८
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्दय सिद्दयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
भावार्थ
हे धनंजय, तू सफलता तथा विफलता में अशक्ति को त्यागकर समभाव में स्थिति हुआ अपना कर्तव्य समझकर कर्म कर, ऐसी समता ही समत्व बुध्दि योग कहलाती है।
अध्याय-२ = श्लोक-४९
दूरेण ह्ववरं कर्म बुद्धियोगाद्दनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
भावार्थ
हे धनजय, इस समत्व बुध्दि योग के द्वारा समस्त निंदनीय कर्म से दूर रहकर उसी भाव से ऐसी चेतना (परमात्मा) की शरण ग्रहण कर, सकाम कर्म के फलों को चाहनेवाले मनुष्य अत्यंत कंजूस होते हैं।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-५०
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौसलम्।।
भावार्थ
समत्व बुध्दि योग के द्वारा मनुष्य इसी जीवन में अपने आप को पुण्य और पाओ के कर्मो से मुक्त कर लेता है, अतः तू इसी योग में लग जा, क्योंकि इसी योग के द्वारा ही सभी कार्य कुशलता पूर्वक पूर्ण होते हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-५१
कर्मजं बुद्दियुक्त्वा हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबंधविनिर्मुक्ताः पदं मत्छन्त्यनामयम्।।
भावार्थ
इस समत्व बुध्दि योग से ऋषिमुनि तथा भक्त सकाम कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्यागकर जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त हो जाते हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-५२
यदा ते मोहकलिलं बुध्दिवर्यतितरिष्यति।
टाडा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।
भावार्थ
में समय में तेरी बुध्दि मोह रूपी दलदल को भली-भांति पार कर जाएगी उस समय तू सुने हुए और सुनने योग्य सभी लोगों से विरक्ति को प्राप्त हो जायेगा।
अध्याय-२ = श्लोक-५३
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
भावार्थ
वैदिक ज्ञान के वचनो को सुनने से विचलित हुई तेरी बुध्दि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जायेगी, तब तू आत्म-साक्षात्कार करके उस दिव्य-चेतना रूप परमात्मा को प्राप्त हो जायेगा।
अर्जुन उवाच
अध्याय-२ = श्लोक-५४
स्थितिप्रज्ञस्य का भाषा समाधि स्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासित व्रजेत किम्।।
भावार्थ
अर्जुन ने कहा – हे केशव, अध्यात्म में लीन स्थिर बुध्दि वाले मनुष्य का क्या लक्षण है, वह स्थिर बुध्दि वाला मनुष्य कैसे बोलता है, किस तरह बैठता है और किस तरह चलता है।
श्री भगवानुवाच
अध्याय-२ = श्लोक-५५
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान्।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितिप्रज्ञस्यदोच्यते।।
भावार्थ
श्री भगवान ने कहा – हे पार्थ, जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं का परित्याग कर देता है, जब विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में ही संतोष प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य विशद्ध चेतना स्थित (स्थिति-प्रज्ञ) कहा जाता है।
अध्याय-२ = श्लोक-५६
दूःखेष्व नुद्धिग्रमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।
भावार्थ
दुखों की प्राप्ति होने पर जिसका मन विचलित नहीं होता है, सुखों की प्राप्ति की इच्छा नहीं रखता है, जो अशक्ति, भय तथा क्रोध से मुक्त है, ऐसा स्थिर मन वाला साधु कहा जाता है।
अध्याय-२ = श्लोक-५७
यः सर्वत्रान भिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
भावार्थ
इस संसार में जो भी मनुष्य न तो सुख की प्राप्ति से हर्षित होता है, और न अशुभ होने पर द्वेष करता है, ऐसी बुध्दि वाला पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है।
अध्याय-२ = श्लोक-५८
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रीयार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
भावार्थ
जिस प्रकार कछुवा सब ओर से अपने अंगों को समेत लेता है, उसी प्रकार मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है तब वह पूर्ण चेतना में स्थिर होता है।
अध्याय-२ = श्लोक-५९
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्ववा निवर्तते।।
भावार्थ
इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले मनुष्य के विषय तो मिट जाते हैं, परन्तु उनमे रहने वाली अशक्ति बनी रहती है, ऐसी स्थिर बुध्दि वाले मनुष्य की अशक्ति भी परमात्मा का साक्षात्कार करके मिट जाती है।
अध्याय-२ = श्लोक-६०
यततो ह्वापि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।
भावार्थ
हे अर्जुन, इन्द्रियाँ इतनी प्रबल तथा वेगवान होती हैं, कि जो भी मनुष्य इन्द्रियों को वश में करने का प्रयन्त करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बल पूर्वक हर लेती हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-६१
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
भावार्थ
जो मनुष्य इन्द्रियों को पूर्णतया वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमे स्थिर कर देता है, वही मनुष्य स्थिर बुद्धि वाला कहलाता है।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
अध्याय-२ = श्लोक-६२
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधो:ऽभिजायते।।
भावार्थ
इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में अशक्ति हो जाती है, ऐसी आशक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कॉमन में विध्न उत्पन्न होने से क्रोध बढ़ता है।
अध्याय-२ = श्लोक-६३
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभंसाद् बुद्दिनाशो बुद्दिनाशात्प्रणश्यति।।
भावार्थ
क्रोध से अत्यन्तपूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरणशक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है, स्मरणशक्ति में भ्रम हो जाने से बुध्दि नष्ट हो जाती है, और बुध्दि के नष्ट हो जाने से मनुष्य का अधोपतन हो जाता है।
अध्याय-२ = श्लोक -६४
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति।।
भावार्थ
किन्तु सभी रागद्वेष से मुक्त रहने वाला मनुष्य अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा मन को वश में करके भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
अध्याय-२ = श्लोक-६५
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुध्दिः पर्यवतिष्ठते।।
भावार्थ
इस प्रकार भगवान की कृपा प्राप्त होने से सम्पूर्ण दुःखों का अंत हो जाता है, तब उस प्रसन्न-चित्त मन वाले मनुष्य की बुद्धि शीघ्र ही एक परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है।
अध्याय-२ = श्लोक-६६
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्।।
भावार्थ
जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती हैं, उस मनुष्य की न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही उसे शांति प्राप्त होती है, उस शांति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव है।
अध्याय-२ = श्लोक-६७
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि।।
भावार्थ
जिस प्रकार पानी पर तैरने वाली नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती हुई इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरंतर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।
अध्याय-२ = श्लोक-६८
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
भावार्थ
हे महाबाहु, जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है।
अध्याय-२ = श्लोक-६९
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यते मुनेः।।
भावार्थ
जो सभी प्राणियों के लिए रात्रि के समान है, वह बुद्धि-योग में स्थित मनुष्य के लिए जागने का समय होता है, और जो समस्त प्राणियों के लिए जागने का समय होता है, वह स्थिर-प्रज्ञ मुनि के लिए वह रात्रि के सामान होता है।
अध्याय-२ = श्लोक-७०
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्धत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
भावार्थ
जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृढ़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किये बिना ही समा जाती है, उसी प्रकार सभी इच्छाएं स्थित-प्रज्ञ मनुष्य बिना विकार उत्पन्न किये ही समा जाती है, वही मनुष्य परम-शांति को प्राप्त होता है, न कि इन्द्रिय सुख चाहने वाला।
अध्याय-२ = श्लोक-७१
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृयः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
भावार्थ
जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम शांति को प्राप्त कर सकता है।
अध्याय-२ = श्लोक-७२
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।
भावार्थ
हे पार्थ, यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नहीं होता है, यदि कोई जीवन के अंतिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्प्राप्ति कर लेता है।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्य-योगो नाम द्वितीयोऽध्यायः समाप्त।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण-अर्जुन संवाद में सांख्ययोग नाम का दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ।
।। हरिः ॐ तत् सत्।।
गीता अध्याय-२ सांख्य योग (अर्जुन के भ्रम का विश्लेषण)
सारांश
दोस्तों, अध्याय-१ (अर्जुन विशाद योग) के सारांश के आखिर में अर्जुन अपना धनुष-बाण त्यागकर युद्ध करने से मना करते हुए अपने रथ के पिछले हिस्से में जाकर बैठ जाते हैं, और अर्जुन को इस तरह कायरों की भाँति हार मानते देख श्री कृष्ण उन्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित करने की दिशा की तरफ ले जाने के लिए (अध्याय-२ सांख्य योग में) उनका मार्गदर्शन करते हैं, और कहते हैं कि…..
हे अर्जुन, ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति में तुझ जैसे ज्ञानी के अंदर यह अज्ञान कैसे उत्पन्न हुआ, तू नपुंसकों जैसी बातें मत कर, ऐसी बातें तुझे शोभा नहीं देती, अपनी कायरता को त्याग और युद्ध के लिए खड़ा हो, जिसके जबाब में अर्जुन कहते हैं क़ि…..
हे मधुसुदन, मै आदरणीय भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य पर भला कैसे बाण चला सकता हूँ, इन्हें मारकर जीने से अच्छा मै भिक्षा मांगना ज्यादा श्रेयष्कर समझता हूँ, हम तो यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए युद्ध करना उचित है या फिर अनुचित, और हमें तो यह भी नहीं पता कि हम यह युद्ध जीतेंगे या हारेंगे।
हे केशव, मै तो धृतराष्ट्र के पुत्रों का भी वध नहीं करना चाहता हूँ, फिर भी वे हमारे सामने युद्ध- भूमि में युद्ध करने के लिए खड़े हैं , मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है की आखिर मै क्या करूँ, कृपया मेरे भ्रम को दूर करे, मै आपका शिष्य हूँ अब आप ही मुझे बताएं कि मेरे लिए क्या सही और क्या गलत है।
अर्जुन को इस तरह भ्रमित होकर शरणागत होते देख भगवान श्री कृष्ण उनके भ्रम का विश्लेषण करते हुए उन्हें गीता का सार सुनाना शुरू करते हैं, जो कि इस अध्याय का मूलमंत्र है, और वह क्या कहते हैं आइये जानते हैं…..
श्री कृष्ण, अर्जुन से कहते हैं कि, हे अर्जुन – तू उनके लिए शोक करता है, जो शोक करने योग्य नहीं हैं और पंडितों जैसी बातें करता है, जो विद्वान होते हैं वे न तो जीवित के लिए और न ही मृत प्राणी के लिए शोक करते हैं।
हे अर्जुन, ऐसा कभी भी नहीं हुआ है कि मै किसी भी समय में नहीं था, या तू नहीं था या फिर ये समस्त राजागण नहीं थे, और न ऐसा ही होगा कि भविष्य में हम सब नहीं होंगे। जिस प्रकार जीवात्मा इस शरीर में बाल्यावस्था से युवावस्था को निरंतर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस शरीर की मृत्यु होने पर दूसरे शरीर में चला जाता है, और ऐसे परिवर्तन से धीर मनुष्य मोह को प्राप्त नहीं होते हैं।
हे अर्जुन, जो इस आत्मा को मारने वाला या मरा हुआ समझते हैं वे लोग अज्ञानी होते हैं, क्योंकि ये आत्मा ना ही किसी को मार सकता है और ना ही यह किसी के द्वारा मारा जा सकता है, यह आत्मा न तो किसी काल में जन्म लेता है, न मरता है और न ही जन्म लेगा, यह तो अजन्मा, नित्य शाश्वत और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता है।
हे अर्जुन, जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र धारण करता है, बिलकुल उसी प्रकार आत्मा भी पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है, इस आत्मा को न तो शस्त्र काट सकता है, न अग्नि जला सकता है, न जल भिगो सकता है और न ही वायु सुखा सकता है। यह आत्मा तो शाश्वत, सर्वव्यापी, अविकारी स्थिर और सदैव एक सा रहने वाला है।
हे अर्जुन, यह आत्मा अदृश्य, अकल्पनीय और अपरिवर्तनीय है, और इस तरह तू आत्मा को अच्छी तरह से जानने के बाद शोक के योग्य नहीं है। इस पृथ्वी पर जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है। हे भारतवंशी, सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले भी अदृश्य रहते हैं और मरने के बाद भी अदृश्य हो जाते हैं सिर्फ बीच में ही वे दिखाई देते हैं, इसलिए इनके लिए शोक करने योग्य नहीं है।
हे अर्जुन, क्षत्रिय होने के नाते अपने धर्म का विचार करके भी संकोच करने योग्य नहीं है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए युद्ध करने के अलावा कोई श्रेष्ठ कार्य नहीं है। वे क्षत्रिय बड़े बड़े भाग्यशाली होते हैं जिन्हें ऐसे युद्ध करने के अवसर प्राप्त होते हैं, जिससे उनके लिए स्वर्ग के द्वार खुल जाते हैं।
हे अर्जुन, अगर तू यह धर्म युद्ध नहीं करेगा तो उपेक्षा का शिकार होगा, जिससे तुझे पाप भी लगेगा, लोग लम्बे अरसे तक तेरी अपकीर्ति की चर्चा करेंगे, और तुझ जैसे सम्मानित व्यक्ति के लिए अपकीर्ति तो मृत्यु से भी बढ़कर है। लोग तेरा मजाक उड़ाएंगे, तेरे सामर्थ्य की निंदा करेंगे, जो तेरे लिए बहुत दुःखदायी होगा।
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन, अगर तू युद्ध में मारा गया तो स्वर्ग की प्राप्ति होगी, और अगर युद्ध में जीत गया तो पृथ्वी का साम्राज्य भोगेगा, इसलिए तू दृढ़ संकल्प होकर खड़ा हो और युद्ध कर, क्योंकि इसी में तेरी सब ओर से भलाई है, सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय आदि की चिंता को छोड़कर तू युद्ध करने के लिए ही युद्ध कर क्योंकि ऐसा करने से तू पाप को प्राप्त नहीं होगा।
हे पृथापुत्र, यह बुद्धि तेरे लिए सांख्य योग में कही गई है, और अब तू इसको निष्काम कर्म योग के विषय में सुन, जिससे तू इस बुद्धि से कर्म करेगा तो तू कर्मों के बंधन से खुद को मुक्त कर सकेगा, और इस प्रकार कर्म करने से न तो कोई हानि होती है और न ही किसी प्रकार का दोष लगता है, अतः ऐसे निष्काम कर्म योग में दृढ़-प्रतिज्ञ बुद्धि एक ही होती है, लेकिन जो दृढ़ प्रतिज्ञ नहीं है ऐसे लोगों की बुद्धि अनेक शाखाओं में विभाजित रहती है।
हे अर्जुन, तेरा कर्म करने में तो अधिकार है लेकिन फल प्राप्त करने में नहीं, इसलिए तू सफलता और विफलता में आसक्ति को त्यागकर समभाव में स्थिति हुआ अपना कर्त्तव्य समझकर कर्म कर क्योंकि ऐसी समता ही समत्व बुद्धि योग कहलाती है।
हे धनंजय, समत्व बुद्धि वाला मनुष्य इसी जीवन में अपने-आप को पुण्य और पापों के कर्मों से मुक्त कर लेता है, इसलिए तू इसी तू भी इसी योग में लग जा क्योंकि इसी योग के द्वारा मनुष्य के सभी कार्य कुशलता पूर्वक पूर्ण होते हैं।
हे पार्थ, इसी समत्व बुद्धि योग को अपनाकर ऋषिमुनि एवं भक्तगण सकाम कर्मों से उत्पन्न होने वाले फलों को त्यागकर जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त हो जाते हैं, जिस समय में तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को भली-भाँति पार कर जायेगी उस समय तू सुने हुए और सुनने योग्य सभी लोगों से विरक्ति को पार कर जायेगा।
और हे अर्जुन, वैदिक ज्ञान के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि जब एकनिष्ठ और स्थिर हो जायेगी तब तू आत्म-साक्षात्कार करके उस दिव्य चेतना रूप परमात्मा को प्राप्त हो जायेगा।
भगवान श्री कृष्ण द्वारा कहे गए इन वचनों को सुनने के बाद अर्जुन उनसे फिर पूछते हैं कि हे केशव…..अध्यात्म में लीन स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य के क्या लक्षण हैं, वह स्थिर बुद्धि वाला मनुष्य कैसे बोलता है, किस तरह बैठता है और कैसे चलता है ?
अर्जुन के इस सवाल पर जबाब देते हुए भगवान श्री कृष्ण बताते हैं कि, जब मनुष्य मनोरथ से उत्पन्न होने वाली इन्द्रिय तृप्ति की सभी प्रकार की कामनाओं का परित्याग कर देता है, जब विशुद्ध हुआ उसका मन आत्मा में ही संतोष प्राप्त करता है, तब वह मनुष्य विशुद्ध चेतना स्थिति (स्थिति-प्रज्ञ) कहा जाता है।
हे अर्जुन, दुखों की प्राप्ति होने पर जिसका मन विचलित नहीं होता, और जो सुखों की प्राप्ति की इच्छा नहीं रखता है, जो अशक्ति, भय तथा क्रोध से बिलकुल ही मुक्त रहता है, ऐसा स्थिर मन वाला मनुष्य साधू कहा जाता है।
इस संसार में जो भी मनुष्य न तो सुख की प्राप्ति से हर्षित होता है, और न अशुभ होने पर द्वेष करता है, ऐसी बुद्धि वाला मनुष्य पूर्ण ज्ञान में स्थिर होता है, जिस प्रकार कछुवा अपने सब अंगो को समेट लेता है, उसी प्रकार मनुष्य अपनी इन्द्रियों को इन्द्रिय विषयों से सब प्रकार से खींच लेता है, तब वह पूर्ण चेतना में स्थिर होता है।
हे अर्जुन, इंसान की इन्द्रियां इतनी प्रबल और वेगवान होती हैं कि जो भी मनुष्य अपनी इन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है, उस विवेकी मनुष्य के मन को भी बल पूर्वक हर लेती हैं, इसलिए जो मनुष्य अपनी इन्द्रियों को पूर्णयता अपने वश में रखते हुए अपनी चेतना को मुझमे स्थिर कर देता है, वही मनुष्य स्थिर बुद्धि वाला कहलाता है।
श्री कृष्ण अर्जुन को आगे और बताते हैं कि हे अर्जुन, इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करते हुए मनुष्य की उन विषयों में आशक्ति हो जाती हैं, और ऐसी आशक्ति से विषयों की कामना उत्पन्न होती है, और कामना में विघ्न उत्पन्न होने से क्रोध बढ़ता है और क्रोध से अत्यन्तपूर्ण मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मरणशक्ति में भ्रम उत्पन्न होता है, जिससे इंसान की बुद्धि नष्ट हो जाती है और बुद्धि के नष्ट हो जाने से उसका विनाश हो जाता है।
श्री कृष्ण फिर कहते हैं कि हे अर्जुन, सभी रागद्वेष से मुक्त रहने वाला मनुष्य अपनी इन्द्रियों के संयम द्वारा अपने मन को वश में करके भगवान की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकते है, जिससे इंसान के सम्पूर्ण दुखों हो जाता है, तब उस प्रसन्न-चित्त मन वाले मनुष्य बुद्धि शीघ्र ही परमात्मा में पूर्ण रूप से स्थिर हो जाती है।
जिस मनुष्य की इन्द्रियाँ वश में नहीं होती हैं, उसकी न तो बुद्धि स्थिर होती है, न मन स्थिर होता है और न ही उसे शांति प्राप्त होती है, उस शांति-रहित मनुष्य को सुख किस प्रकार संभव हो सकता है। जिस प्रकार पानी में तैरती नाव को वायु हर लेती है, उसी प्रकार विचरण करती इन्द्रियों में से किसी एक इन्द्रिय पर मन निरंतर लगा रहता है, वह एक इन्द्रिय ही उस मनुष्य की बुद्धि को हर लेती है।
श्री कृष्ण फिर कहते हैं कि हे महाबाहु, जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों से सभी प्रकार से विरक्त होकर उसके वश में रहती हैं, उसी मनुष्य की बुद्धि स्थिर रहती है। हे अर्जुन, जो सभी प्राणियों के लिए रात्रि के समान है, वह बुद्धि योग में स्थित मनुष्य के लिए जागने का समय होता है, और जो समस्त प्राणियों के लिए जागने का समय होता है वह स्थिर-प्रज्ञ मनुष्य के लिए रात्रि के समान होता है।
हे अर्जुन, जिस प्रकार अनेकों नदियाँ सभी ओर से परिपूर्ण, दृढ़-प्रतिष्ठा वाले समुद्र में समुद्र को विचलित किये बिना ही समा जाती हैं, उसी प्रकार सभी इच्छाएं स्थित-प्रज्ञ मनुष्य बिना विकार उत्पन्न किये ही समा जाती हैं, वही मनुष्य परम शांति को प्राप्त होता है।
हे अर्जुन, जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम शांति को प्राप्त कर सकता है, इसलिए हे पार्थ, यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नहीं होता है, यदि कोई मनुष्य जीवन के अंतिम समय में भी इस पथ पर स्थित हो जाता है, तब भी वह भगवद्प्राप्ति कर लेता है।
दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी
में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, गीता अध्याय-३ के साथ, तब तक के लिए, जय हिन्द-जय भारत।
लेखक परिचय
इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।
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