गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita

दोस्तों, गीता अध्याय-१६ देव असुर संपदा विभाग योग के अंत में श्री कृष्ण ने अर्जुन को बताया था कि हे धनञ्जय, जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलना करता है और मनमाने ढंग से कार्य करता है, उसे न तो सिद्धि, न सुख, न ही परमगति की प्राप्ति हो पाती है। हे अर्जुन, अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि शास्त्रों के विधान अनुसार क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है, उसे ऐसे विधि-विधानों को जानकर कर्म करना चाहिए जिससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके, इससे आगे गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से क्या कहते है ? आइये जानते हैं इस आर्टिकल के माध्यम से…..

गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita
गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita

गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita

अर्जुन उवाच

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। 

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः।। 

भावार्थ

अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, जो लोग शास्त्र के नियमों का पालन न करके अपनी कल्पना के अनुसार पूजा करते हैं, उनकी स्थिति  है ? वे सतोगुणी हैं, रजोगुणी हैं या तमोगुणी ?

श्री भगवानुवाच

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।। 

  भावार्थ 

भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन, देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है – सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी, अब इसके विषय में मुझसे सुनो।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=३  

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्ध स एव सः।। 

भावार्थ 

हे भरतपुत्र, विभिन्न गुणों के अंतर्गत अपने-अपने आस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है, अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=४

यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। 

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।। 

  भावार्थ 

हे पार्थ, सतोगुणी व्यक्ति देवताओं को पूजते हैं, रजोगुणी यक्षों व राक्षसों को पूजते हैं और तमोगुणी व्यक्ति भूत-प्रेतों को पूजते हैं।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=५-६ 

अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। 

दम्भाहङ्कारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः।। 

कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः। 

मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विदध्यासुरनिश्चयान्‌।।

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अभिभूत होकर शास्त्र विरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं, जो काम तथा आशक्ति द्वारा प्रेरित होते हैं जो मुर्ख हैं तथा जो शरीर के भौतिक तत्त्वों को तथा शरीर के भीतर स्थित परमात्मा को कष्ट पहुँचाते हैं, वे असुर कहे जाते हैं।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=७ 

आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। 

यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसंद करता है, वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है, यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है, अब उनके भेदों के विषय में सुनो।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=८ 

आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धना। 

रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः।। 

भावार्थ 

हे महाबाहो, जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=९

कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहीनः। 

आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः।।  

भावार्थ 

हे अर्जुन, अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं, ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१० 

यतयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्‌। 

उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्‌।। 

भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=११ 

अफलाकाङ्क्षिक्षिभिर्यज्ञो विधिदिष्टो य इज्यते। 

यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः।। 

भावार्थ 

हे पार्थ, यज्ञों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है, जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१२  

अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्‌।

इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्‌।। 

भावार्थ 

लेकिन हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्व वश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानों।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१३ 

विधिहीनमसृष्टान्नं मंत्रहीनमदक्षिणम्‌।  

श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके, प्रसाद वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिए बिना तथा श्रद्धा के बिना संपन्न किया जाता है, वह तामसी माना जाता है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१४

देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्‌।  

ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते।। 

  भावार्थ 

 हे अर्जुन, परमेश्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१५  

अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्‌। 

स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्‍मयं तप उच्यते।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, सच्चे, भाने वाले, हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना – यही वाणी की तपस्या है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१६  

मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। 

भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते।। 

भावार्थ 

 हे पार्थ, संतोष, सरलता, गंभीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि – ये मन की तपस्याएँ हैं।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१७ 

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः। 

अफलाकाङ्क्षिक्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते।।

भावार्थ 

हे महाबाहो, भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से संपन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१८ 

सत्कारमानपूजार्थ तपो दम्भेन चैव यत्‌। 

क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्‌।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, जो तपस्या दंभपूर्वक तथा सम्मान, सत्कार एवं पूजा करने के लिए संपन्न की जाती है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाती है, यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=१९

मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। 

परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम्‌।।

  भावार्थ 

हे ,कुन्तीपुत्र, मूर्खतावश आत्म-उत्पीड़न के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२० 

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेनुपकारिणे। 

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्‌।। 

भावार्थ 

हे अर्जुन, जो दान कर्तव्य समझकर, किसी प्रत्युपकार के आशा बिना, समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता  है, वह सात्त्विक माना जाता है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२१ 

यत्तु प्रत्युपकारार्थ फलमुद्दिश्य वा पुनः। 

दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्‌।।

भावार्थ 

हे भरतश्रेष्ठ, किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाता है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२२

अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।

असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्‌।।

  भावार्थ 

हे पार्थ, जो दान किसी अपवित्र स्थान में, अनुचित समय में, किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान तथा आदर से दिया जाता है, वह तामसी कहलाता है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२३  

ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।

ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा।। 

भावार्थ 

हे धनंजय, सृस्टि के आदिकाल से ॐ तत्‌ सत्‌ ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं, ये तीनों सांकेतिक अभिव्यक्तियों ब्राह्मणों द्वारा वैदिक  मन्त्रों का उच्चारण करते समय तथा ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिए यज्ञों के समय प्रयुक्त होती थीं।

 गीता अध्याय-१७  श्लोक=२४

तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः। 

प्रवर्तन्ते विधानोक्ता सततं ब्रह्मवादिनाम्‌।।

  भावार्थ 

हे अर्जुन, अतएव योगीजन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ, दान तथा तप की समस्त क्रियायों का शुभारम्भ सदैव ओम्‌ से करते हैं।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२५

तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपः क्रियाः। 

दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षक्षिभिः।।

  भावार्थ 

हे कुन्तीपुत्र, मनुष्य को चाहिए कि कर्मफल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान को तत्‌ शब्द कहकर संपन्न करें, ऐसी दिव्य क्रियाओं का उद्देश्य भाव-बंधन से मुक्त होना है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२६-२७

सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते। 

प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दःह पार्थ युज्यते।। 

यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। 

कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते।। 

भावार्थ 

हे धनञ्जय, परम सत्य भक्तिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत्‌ शब्द से अभिहित किया जाता है, हे पृथापुत्र, ऐसे यज्ञ का सम्पन्नकर्ता भी ‘सत्‌’ कहलाता है, जिस प्रकार यज्ञ, तप तथा दान के सारे कर्म भी जो परमपुरुष को संपन्न करने के लिए संपन्न किये जाते हैं, ‘सत्‌’ है।

गीता अध्याय-१७  श्लोक=२८

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌। 

असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह।।

  भावार्थ 

हे पार्थ, श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्वर है, वह असत्‌ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म – दोनों में ही व्यर्थ जाता है।

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायांयोगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे श्रद्धात्रय विभाग योगो नाम सप्तशोऽध्यायः समाप्त॥

इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद्भगवद्गीता के श्री कृष्ण- अर्जुन संवाद में श्रद्धात्रय विभाग योग नामक सत्रहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ।

।। हरिः ॐ तत् सत्।।

गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita

सारांश

दोस्तों, गीता अध्याय-१७ को श्रद्धात्रय विभाग योग के नाम से जाना जाता है, जिसमें भगवान श्री कृष्ण ने सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण के प्रदुर्भाव के बारे में तो बताया ही है साथ ही (यज्ञ, तप, दान) तथा तीन प्रकार के आहारों के बारे में भी बताया है और वे क्या हैं आइये जानते हैं…..

अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण, जो लोग शास्त्र के नियमों का पालन न करके अपनी कल्पना के अनुसार पूजा करते हैं, उनकी स्थिति  है ? वे सतोगुणी हैं, रजोगुणी हैं या तमोगुणी ? भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा – हे अर्जुन, देहधारी जीव द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार उसकी श्रद्धा तीन प्रकार की हो सकती है – सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी, अब इसके विषय में मुझसे सुनो।

 हे भरतपुत्र, विभिन्न गुणों के अंतर्गत अपने-अपने आस्तित्व के अनुसार मनुष्य एक विशेष प्रकार की श्रद्धा विकसित करता है, अपने द्वारा अर्जित गुणों के अनुसार ही जीव को विशेष श्रद्धा से युक्त कहा जाता है। हे पार्थ, सतोगुणी व्यक्ति देवताओं को पूजते हैं, रजोगुणी यक्षों व राक्षसों को पूजते हैं और तमोगुणी व्यक्ति भूत-प्रेतों को पूजते हैं।

 हे धनञ्जय, जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अभिभूत होकर शास्त्र विरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं, जो काम तथा आशक्ति द्वारा प्रेरित होते हैं जो मुर्ख हैं तथा जो शरीर के भौतिक तत्त्वों को तथा शरीर के भीतर स्थित परमात्मा को कष्ट पहुँचाते हैं, वे असुर कहे जाते हैं।

हे कुन्तीपुत्र, यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति जो भोजन पसंद करता है, वह भी प्रकृति के गुणों के अनुसार तीन प्रकार का होता है, यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दान के लिए भी सत्य है, अब उनके भेदों के विषय में सुनो।

 हे महाबाहो, जो भोजन सात्त्विक व्यक्तियों को प्रिय होता है, वह आयु बढ़ाने वाला, जीवन को शुद्ध करने वाला तथा बल, सुख तथा तृप्ति प्रदान करने वाला होता है। हे अर्जुन, अत्यधिक तिक्त, खट्टे, नमकीन, गरम, चटपटे, शुष्क तथा जलन उत्पन्न करने वाले भोजन रजोगुणी व्यक्तियों को प्रिय होते हैं, ऐसे भोजन दुख, शोक तथा रोग उत्पन्न करने वाले हैं।

 हे कुन्तीपुत्र, खाने से तीन घंटे पूर्व पकाया गया, स्वादहीन, वियोजित एवं सड़ा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओं से युक्त भोजन उन लोगों को प्रिय होता है, जो तामसी होते हैं। हे पार्थ, यज्ञों में वही यज्ञ सात्त्विक होता है, जो शास्त्र के निर्देशानुसार कर्तव्य समझ कर उन लोगों के द्वारा किया जाता है, जो फल की इच्छा नहीं करते।

लेकिन हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ किसी भौतिक लाभ के लिए या गर्व वश किया जाता है, उसे तुम राजसी जानों। हे धनञ्जय, जो यज्ञ शास्त्र के निर्देशों की अवहेलना करके, प्रसाद वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों का उच्चारण किये बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिए बिना तथा श्रद्धा के बिना संपन्न किया जाता है, वह तामसी माना जाता है।

 हे अर्जुन, परमेश्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-पिता जैसे गुरुजनों की पूजा करना तथा पवित्रता, सरलता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा ही शारीरिक तपस्या है। हे अर्जुन, सच्चे, भाने वाले, हितकर तथा अन्यों को क्षुब्ध न करने वाले वाक्य बोलना और वैदिक साहित्य का नियमित पारायण करना – यही वाणी की तपस्या है।

 हे पार्थ, संतोष, सरलता, गंभीरता, आत्म-संयम एवं जीवन की शुद्धि – ये मन की तपस्याएँ हैं।हे महाबाहो, भौतिक लाभ की इच्छा न करने वाले तथा केवल परमेश्वर में प्रवृत्त मनुष्यों द्वारा दिव्य श्रद्धा से संपन्न यह तीन प्रकार की तपस्या सात्त्विक तपस्या कहलाती है।

 हे धनञ्जय, जो तपस्या दंभपूर्वक तथा सम्मान, सत्कार एवं पूजा करने के लिए संपन्न की जाती है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाती है, यह न तो स्थायी होती है न शाश्वत। हे ,कुन्तीपुत्र, मूर्खतावश आत्म-उत्पीड़न के लिए या अन्यों को विनष्ट करने या हानि पहुँचाने के लिए जो तपस्या की जाती है, वह तामसी कहलाती है।

हे अर्जुन, जो दान कर्तव्य समझकर, किसी प्रत्युपकार के आशा बिना, समुचित काल तथा स्थान में और योग्य व्यक्ति को दिया जाता  है, वह सात्त्विक माना जाता है। हे भरतश्रेष्ठ, किन्तु जो दान प्रत्युपकार की भावना से या कर्म फल की इच्छा से या अनिच्छापूर्वक किया जाता है, वह राजसी (रजोगुणी) कहलाता है।

हे पार्थ, जो दान किसी अपवित्र स्थान में, अनुचित समय में, किसी अयोग्य व्यक्ति को या बिना समुचित ध्यान तथा आदर से दिया जाता है, वह तामसी कहलाता है। हे धनंजय, सृस्टि के आदिकाल से ॐ तत्‌ सत्‌ ये तीन शब्द परब्रह्म को सूचित करने के लिए प्रयुक्त किये जाते रहे हैं, ये तीनों सांकेतिक अभिव्यक्तियों ब्राह्मणों द्वारा वैदिक  मन्त्रों का उच्चारण करते समय तथा ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिए यज्ञों के समय प्रयुक्त होती थीं।

  हे अर्जुन, अतएव योगीजन ब्रह्म की प्राप्ति के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ, दान तथा तप की समस्त क्रियायों का शुभारम्भ सदैव ओम्‌ से करते हैं। हे कुन्तीपुत्र, मनुष्य को चाहिए कि कर्मफल की इच्छा किये बिना विविध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दान को तत्‌ शब्द कहकर संपन्न करें, ऐसी दिव्य क्रियाओं का उद्देश्य भाव-बंधन से मुक्त होना है।

हे धनञ्जय, परम सत्य भक्तिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत्‌ शब्द से अभिहित किया जाता है, हे पृथापुत्र, ऐसे यज्ञ का सम्पन्नकर्ता भी ‘सत्‌’ कहलाता है, जिस प्रकार यज्ञ, तप तथा दान के सारे कर्म भी जो परमपुरुष को संपन्न करने के लिए संपन्न किये जाते हैं, ‘सत्‌’ है।

हे पार्थ, श्रद्धा के बिना यज्ञ, दान या तप के रूप में जो भी किया जाता है, वह नश्वर है, वह असत्‌ कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म – दोनों में ही व्यर्थ जाता है।

दोस्तों, आशा करता हूँ कि यह आर्टिकल गीता अध्याय-१७ श्रद्धात्रय विभाग योग || Operation Gita आपके ज्ञान के भंडार को पहले से और बेहतर बनायेगा साथ ही आपको बुद्धजीवियों की श्रेणी में लेकर जायेगा, तो आज के लिए सिर्फ इतना ही, अगले आर्टिकल में हम फिर मिलेंगे, गीता अध्याय-१८ के साथ, तब तक के लिए,

जय श्री कृष्णा

लेखक परिचय

इस वेबसाइट के संस्थापक अमित दुबे हैं, जो दिल्ली में रहते हैं, एक Youtuber & Blogger हैं, किताबें पढ़ने और जानकारियों को अर्जित करके लोगों के साथ शेयर करने के शौक के कारण सोशल मीडिया के क्षेत्र में आये हैं और एक वेबसाइट तथा दो Youtube चैनल के माध्यम से लोगों को Motivate करने तथा ज्ञान का प्रसार करने का काम कर रहे हैं।

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